Sunday 28 June 2015

मैं प्रकृति हूँ

मैं प्रकृति हूँ !
मैं तो आँचल बनकर आई थी इस ब्रह्माण्ड पर,
मगर बुद्धिजीवियों ने मुझे विभाजित कर दिया |

क्या कमी रह गई थी मेरी ममता में?
सब कुछ तो अर्पित कर दिया है मैंने अपना !
कहीं धाराओं में बहती हूँ नदी बनकर, तो कहीं खड़ी हूँ पर्वत बनाकर,
कहीं छाया बिखेरती हूँ वृक्ष बनकर, तो कहीं चुभन भी देती हूँ कांटे बनकर,
अपनी छाती फाड़ कर भूख मिटाती हूँ सबकी, तो महकती हूँ कहीं पुष्प बनकर |
क्या कमी है मेरी ममता मे?
मैं तो प्रकृति हूँ |

मैं प्रकृति हूँ!
नित्य दिन अन्धकार मिटाती हूँ सुबह-सुबह उठकर,
सूर्य की प्रचंड किरणों को मैं ही तो बदलती हूँ ऋतु बनकर,
वायु बनकर साँसों में दौड़ती हूँ, पल पल साथ रहती हूँ दिन-रात बनकर,
क्या कमी है मेरी ममता मे?
मैं तो प्रकृति हूँ |

मैं तो प्रकृति हूँ |
क्या कमी है मेरी ममता मे?
क्यों तुम कोसते हो मुझे ?
जब कभी भी बाढ़ आती है, या पर्वत खिसकते हैं कहीं?
कोसी जाती हूँ मैं, जब उठते हैं चक्रवात समुंदर में !
बादल बरसते हैं तब भी, नहीं बरसते तब भी !
कहीं सूरज नहीं उगता तब भी, कहीं बर्फ नहीं पिघलती तब भी !
आखिर क्यों कोसी जाती हूँ मैं?
क्या कमी रह गई मेरी ममता में ?

मैं प्रकृति हूँ!
कभी सोचा है मेरे बारे में?
बूढ़ी हो गई में, दुःख मुझे भी होता है,
कहीं ढूबा है एक सिरा मेरा पानी से, तो कहीं बंजर है आँचल मेरा,
दुःख मुझे भी होता है, फिर भी सता रहे हो तुम मुझे,
कहीं वृक्ष काटकर तो कहीं पर्वत गिराकर,
बाँध दी मेरी धारा, तुमने बाँध बनाकर,
कर दिया कहीं बंजर परमाणु से, खोद दिया मेरा सीना कहीं खदानों से,

मैं प्रकृति हूँ,
मुझे जिह्वा नहीं मिली की मैं अपना दुःख तुम्हें बता सकूँ!
फिर भी मैंने चेताया कई बार, की तुम भी मेरी पीड़ा समझ सको,
जब हिली धरा तो चेताया मैंने भूकंप बनकर, पानी पानी किया तो बताया बादल बनाकर,
कहीं दिया सन्देश अधिक हिमपात कराकर, तो कहीं किया सचेत चक्रवात बनकर,
मगर तुझसा नादान तो पशु ही नहीं है मानव , अनदेखा कर देता है प्रकृति का कहर बताकर |

मुझे नष्ट करके तू स्वयं नष्ट हो रहा है !
अपने स्वार्थ के लिए क्यों परलय ला रहा है !
मैं प्रकृति हूँ, मैं ही तुम हूँ , तुम ही मैं हूँ,
अब तो सचेत हो जाओ, हम दोनों अलग नहीं,
मैं प्रकृति हूँ, मैं ही तुम हूँ, तुम ही मैं हूँ,
मैं प्रकृति हूँ ||